लेख

कठघरे में पुरुषवादी स्त्री विमर्श

उदभावना के संपादक अजेय कुमार का मोहल्ला लाइव पर वी.एन.राय केन्द्रित विशेषांक का ब्याज परक सम्पादकीय पढा । यह पहला ऐसा लेख है जिसमें सम्पादक ने दोनों काम एक साथ किये है। यानि निन्दा के बहाने स्तुति और स्तुति के बहाने निन्दा।

अपने संपादकीय में अजेय बडी चतुराई और विनम्रता से वर्धा के कुलपति वी.एन.राय का छिनाल-प्रकरण प्रसंग से लगभग बचाव सा करते हुए विपरित परिस्थितियों को दोषी ठहराते हुए उनके समर्थन में पहला कारण बताते हुए कहते है........ 'फिर अचानक पता नही कैसे साक्षात्कार का रुख बदल गया । पता नही यह साक्षात्कार कहां और कब लिया गया ? सुबह लिया गया या शाम को सात बजे के बाद लिया गया। प्राय: सात बजे के बाद का समय लेखकों के लिए प्रैस क्लब या इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में रसरंजन का होता है। यह वह समय होता है जब आदमी दिन के कई झंझटों से थोडा मुक्त होता है, जब वह दिमाग की कम और दिल की अधिक सुनता है'। क्या हम यह माने,कि शाम होते ही आदमी के अंदर की छिनालियत बाहर आने को बेकरार होने लगती है अर्थात उसके कदम बहकने लगते है. यानि दिन में वह लेखक होता है, इंसान होता है पर शाम और रात होते ही उसकी दुनिया स्त्री रसरंजन और रंगीन होने को मचल उठती है उसका अपने दिल पर नियंत्रण नही रहता। और ऐसे वक्त अगर कोई लेखक या बुद्धिजीवी छिनालियत के नशे में इंटरव्यूह दे तो उसे 'हँस के बिसरा दिया जाना चाहिए'। उस अबोध की कोई जिम्मेदारी नही 'ऐसे में जिम्मेदारी संपादक की आती है कि वह खुद ही सलाह दे कि फलां भाग काट दो या बदल दो'...... कहने का मतलब छिनाल प्रसंग मे फूलिश फ्रेंड, बेवफा दिल और संपादक जिम्मेदार है वी एन राय तो मात्र परिस्थिति के शिकार है।
दूसरी विपरित परिस्थिति का वर्णन करते हुए अजय कहते है.......“दूसरे मुझे यह भी लगता है कि पुलिस की पृष्ठभूमि ने भी विभूति का बडा नुक्सान किया है। आप उच्च पुलिस अधिकारी है तो आपको रोज आपराधिक घटनाएं सुननी पडती है.............." "गालियां प्राय: निकाली जाती है आप खुद ना निकाले परन्तु सुननी तो पडती हैं अधिकांश गालियां महिलाओँ को लेकर से संबधित होती हैं।ऐसी पृष्ठभूमि हो तो जाहिर है किसी को छिनाल कह देना कोई बडी बात नही।" कहने का मतलब पूरी तरह वर्दी ही दोषी है अगर वी.एन.राय जी पुलिस विभाग में नही होते तो उस विभाग की पेटेन्ट गालियाँ 'छिनाल' और 'निम्फोमेनिक कुतिया' जैसी गालिया कभी नही देते।

तीसरे अजय कहते है - "सार्वजनिक लेखन कर्म आपसे कुछ अनुशासन की मांग तो करता ही है। आप दोस्तों के बीच बैठकर जब प्राय किसी महिला विशेष पर बातचीत होती है तो यह मानकर कि इसे सार्वजनिक नहीं किया जाएगा। साक्षात्कार देते वक्त विभूति ने इन सावधानियों को नही बरता।" उससे पहले अजय कह रहे है-"अभी हाल ही में राजेन्द्र यादव के 27 साक्षात्कारों की एक पुस्तक आई है। स्त्री विमर्श पर अपनी टिप्पणियों मे कितनी सावधानी बरती है उन्होने कि विश्वास नही होता कि वह असली राजेन्द्र यादव है"। तात्पर्य यह कि वैसे आप चाहे जितना चोरी छिपे,रसरंजन के लिए सिर से सिर जोडकर जाम से जाम टकराते और छलकाते हुए स्त्रियों को जितना चाहे छिनाल कहे मगर ध्यान रहे ये "छिनाल् टिप्पणियां" सार्वजनिक ना हो तो कोई बात नही यानि आप जितने मर्जी स्त्री विरोधी हो पर आपका यह रुप पब्लिकली नही आना चाहिए, संपादक अच्छी सलाह दे रहे है।
स्त्री विमर्श पर चर्चा करते हुए वे राजेन्द्र यादव पर टिप्पणी करते हुए कहते है "बुरा हो राजेन्द्र यादव का जिन्होने कई वर्षों से स्त्री विमर्श देह विमर्श को कथा साहित्य के केन्द्र में लाकर खडा कर दिया है।" यह ठीक है कि स्त्री विमर्श को केन्द्र में लाने पर राजेन्द्र यादव जी की क्रेडिट देना चाहिए परन्तु वे किस तरह का स्त्री विमर्श लाएं इस पर भी पड़ताल की जानी चाहिए। स्त्री विमर्श में केवल देह विमर्श करने का नुकसान हम झेल ही रहे है जिसकी परिणति छिनाल प्रसंग पर आकर रूकी है, दरअसल जिस तरीके से स्त्री विमर्श के बहाने केवल देह विमर्श हुआ उसका अन्त यही होना था। बाजारवाद, ब्राह्मणवाद और पितृसत्ता के मूल्यों से लदे-फदे हम स्त्री को एक 'खूबसूरत दुश्मन' मानकर विमर्श करने लगे ।तब उसके सम्पूर्ण अस्तित्व पर बहस करने के बजाय उस बहस को ' खूबसूरत दुश्मन के साथ सोने ' की तरफ मोडकर दिया गया। जब उस 'खूबसुरत दुश्मन' के शारीरिक वजूद तक सीमित होकर उसके सीमित वजूद के खिलाफ जंग लडी जाने लगी, तब पूरा स्त्री विमर्श केवल देह पर आकर टिक गया । तब इस विमर्श में स्त्री या तो हमें स्वप्न में भी डराने लगती है नही तो उसकी देह जनित आनन्द के कसीदे काढे जाने लगते है।
मुख्य धारा के हिन्दी साहित्य में भी यही हुआ । पूरा स्त्री विमर्श व उसकी मुक्ति के सारे सवाल, देह तक सिमट कर रह गये। स्त्री के बाकी सवाल कहीं पीछे छूट गए, जबकि इनके हल हुए बिना उसकी मुक्ति संभव नही थी। इस विमर्श में स्त्री - शोषण के विभिन्न रुपों पर व्यापक विमर्श की जगह मात्र कुछ हद तक उसके घरेलू पहलुओं पर ही चर्चा सिमट कर रह गई । शोषण के सामाजिक पहलुओँ के सवाल पर कहीं- कहीं, कभी-कभी, दबी-दबी सी बात कर मात्र औपचारिकता निभाई गई। गरीव दलित शोषित पीडित अपमानित मजदूर किसान स्त्री और उसके जल जंगल जमीन, उसकी अस्मिता के सवाल, उसके जातीय, सामाजिक शोषण, और धार्मिक शोषण के खिलाफ लड़ने की आवाज़ की वकालत ना करते हुए स्त्री को केवल पुरूष की दैहिक गुलामी से बाहर निकालने की बात पर चर्चा की गई। यहीं कारण है कि महिलाओँ पर समाज द्वारा बडे से बडा जुल्म ढाएं जाने पर भी लेखक वर्ग इन जुल्मों के खिलाफ नही बोलता ।

उसका खामोश रहकर जुल्मी के प्रति असाधारण व असंवेदनशील रुप से चुप्पी साध लेना अखरता है। खासकर उस लेखक वर्ग का जो अपने आप को स्त्री विमर्श का तथाकथित आधार स्तम्भ कहलाना पसंद करता है । इनमें वे महिला लेखिकाएं भी शामिल हैं , जो ना जाने कितने सालों से और ना जाने कितनी पत्र-पत्रिकाओँ के लिए बंद कमरे में बैठकर स्त्रिय़ों की गुलामी और उन पर होने वाले अत्याचार के खिलाफ, उनकी मुक्ति के लिए कालम लिख- लिखकर पत्र- पत्रिकाओँ के पेज काले कर रही है। पर जैसे ही इन अत्याचारों के खिलाफ सक्रिय विरोध का कोई मौका आता है वैसे ही इनको स्त्रीवादियों की कलम की स्याही खत्म हो जाती है। और वे असाधारण चुप्पी साध लेते-लेती है। आखिर इस चुप्पी का कारण क्या है? चुप्पी या चुप रहने की मजबूरी क्या है? इन लेखिकाओं का एक बडा व महत्वपूर्ण तबका जिस धनाढ्य व उच्च वर्ग के कारण प्रायोजित होकर आया है उसका अपना वर्ग हित सामाजिक यथास्थिति बनाएं रखने में है। रोजमर्रा की जिन्दगी में ये लेखिकाए इन गरीब दलित दबी कुचली औरतों से मिलती जरुर है पर केवल 'दाई मां' "साग सब्जी वाली" , "झाडू पोछा करने वाली बाई" के ही रुप में।

इन गरीव-दलित शोषित पीडित औरतों से जुडने के लिए उनके समाज में उठना बैठना, उनके साथ खाना पीना और एक समानता के स्तर पर घनिष्ठ जुडाव जरुरी है। पर यह सब करने के लिए इन लेखिकाओं की जाति एवम् वर्ग आडे आ जाता है। और यही कारण है कि गरीब दलित वर्ग की महिलाओँ और उनके साथ जमीन पर उनके हकों व उनके संधर्ष तथा उनके वास्तविक हालत से सीधा जुड़ाव ना होने के कारण हमारी लेखिकाओं व तथाकथित स्त्रीवादी लेखकों के पास देह विमर्श करने के सिवाय और कोई चारा ही नही बचता । इसमें ये लोग बढ़ चढ़कर भाग लेते हैं क्योंकि उसमें अपने व्यक्तिगत अनुभव से भी काम चल सकता है। पर ज्यों ही देह से इतर सवाल आते है उनके कलम की निब टूट जाती है। अगर आज स्त्री विमर्श के बाद तथाकथित लेखिकाओं की भारी जमात जो देह विमर्श के लेखन से तपकर निकली अगर उनके सवाल देह-विमर्श तक सीमित न होकर अन्य लड़ाई से जुड़े होते तो आज छिनाल जैसी महिला विरोधी टिप्पणी करने पर भी लेखिकाएं यू चूप्पी ना मार लेती , बल्कि संघर्ष में आगे होती।
एक सवाल है उन देह विमर्शकारों से जो देह विमर्श पर एकाधिकार से और बढ़चढ़ कर बोलते है आज वे खामोश क्यों है? क्या वे किसी के इशारे की प्रतीक्षा में है? वो भी किसी मठाधीश की ? मठाधीश की आज्ञा होगी तो कलम चलेगी। इन कठपुतली लेखिकाओं की डोर को किसने थाम रखी है?
कुछ साल पहले हंस के माध्यम से एक बहस चली थी जिसमे स्त्रियों को दलितों के समक्ष रख देने पर बहुत सारी लेखिकाएं पिनपिना कर खड़ी हो गई थी। उनको दुख और गुस्सा था कि उन्हें दलितों के बराबर किस आधार पर माना जा सकता है ? वे उस समय अपने आप को दलित कहे जाने पर उत्तेजित थी, परन्तु आज लेखिकाओँ को 'निम्फोमेनिक कुतिया' 'छिनाल' आदि कहे जाने पर चुप्पी साध लेती है यानि दलितों की गरिमा उनकी निगाह में एक कुत्ते से भी कम है । या फिर 'छिनाल' और 'निम्फोमेनिक कुतिया' जैसे शब्द इन लेखिकाओं के लिए बहुत हल्के है. उन्हें इनके कोई मायने नही लगते. और इसी के चलते उन्हे इस पर बात करना, विरोध करना, राय बनाने की अपेक्षा कथा कहानी लेख लिखना अधिक बेहतर लगता है। संभव है इस पुरूष प्रधान ब्राह्मणवादी समाज में खासकर हिन्दी साहित्य के मर्दवादी सोच के लेखकों के बीच उनकी सोच भी वैसी ही बन गई है। आज के बजारीकरण के दौर में अवसरवाद भी लोगों के आक्रोश को ठंडा करता है।

साहित्यिक पत्रिकाओं की संपादक स्त्रियां बहुत कम है बल्कि ना के बराबर ही है। इस कारण वे कालम लिखने तक लिए तो पुरुष संपादको पर निर्भर है । ऐसी परिस्थति में लिखने के लिए संपादक की परमिशन भी तो जरूरी है, परमिशन न मिलने पर बेचारी लेखिकाएँ मात्र इशारो से काम चला लेती है और खुलकर विरोध नही कर पाती हैं। वे व्यापक सामजिक सोच विकसित नहीं कर पाई है जिसके चलते उन्हें इस 'छिनाल प्रसंग' की बात में कोई बुराई नज़र नही आ रही है, इस पूरे प्रकारण से क्या हम देख सकते है कि एक सुविख्यात लेखिका पर हमला होने के बावजूद कोई कार्यवाही नहीं होती कोई पत्ता नही हिलता तो सोचिये उन दबी कुचली शोषित औरतों का जिनपर आएं दिन तरह-तरह के अत्याचार होते है, फिकरे कसे जाते है , उनके साथ बलात्कार होता है जिन्दा जला दिया जाता है नंगा घुमाया जाता है और पूरी मजदूरी और काम के नाम पर उन्हे सलाखों से दाग दिया जाता है उनका क्या हाल होता होगा? क्या स्त्री -विमर्श के विमर्शकारों का ध्यान कभी इस ओर भी होगा?

ब्राह्मणवाद और बाजारवाद समाज के उस खोटे सिक्के के दो पहलू है, जिनके बीच में फँसकर स्त्री मात्र उपभोग की तुच्छ वस्तु बनकर रह गई है। और जब विमर्शकार ही दिग्भ्रमित हो चुके हो तो स्त्री विमर्श की दिशा  क्या होगी इसका अंदाजा लगाना कोई मुश्किल काम नही। 
-------------------------------------------------------------------------------------------------------------------
Share |