समीक्षा

दोहरा अभिशाप : दलित स्त्री संघर्ष का महाकाव्य

कौसल्या बैसन्त्री का आत्मवृत ' दोहरा अभिशाप' दलित साहित्य की अनुपम और अद्वितीय कृति है। दलित साहित्य विमर्श में इस कृति का कई मायनों में विशेष महत्व है। पहला तो यह कि यह हिन्दी का पहला ऐसा आत्मवृत है जिसे एक दलित लेखिका द्वारा लिखा गया है, दूसरा यह है कि लेखिका ने स्वयं दलित होने के कारण जिस ईमानदारी और प्रतिबद्धता के साथ दलित महिलाओं के उत्पीड़न और संघर्ष को दिखाया वह अपने आप में अद्वितीय है। तीसरा यह कि यह तीन पीढी की कथा है जिसमें लेखिका की माँ भागेरथी, नानी आजी और स्वयं लेखिका के जीवन का मार्मिक एवम विशद चित्रण हुआ है। दोहरा अभिशाप जब छप कर आया था, तब लेखिका की स्त्री मुक्ति की धारणा को लेकर कई दलित साहित्यकार उन पर व्यक्तिगत आरोप लगाने तक से नही चूके। उस समय इन रुढिवादी दलित लेखकों द्वारा उनके लेखन और नीजि जीवन पर कई प्रश्न चिन्ह खड़े किए गए थे, परन्तु प्रश्नचिन्ह कितने भी खड़े हो आत्मवृत में उठाए गए दलित स्त्री के संघर्ष और त्याग को झुठला नहीं सकते।
कौशल्या बैसंत्री का आत्मवृत दोहरा अभिशाप भारतीय समाज में दलित स्त्रियों की आजादी का बिगुल बन कर उभरा है। लेखिका पुस्तक की भूमिका में घोषणा करती है ---- “पुत्र भाई पति सब मुझ पर नाराज हो सकते है , परन्तु मुझे भी तो स्वतन्त्रता चाहिए कि मैं अपनी बात समाज के सामने रख सकूँ। मेरे जैसे अनुभव औऱ भी महिलाओं के सामने आए होगें परन्तु समाज और परिवार के भय से अपने अनुभव समाज के सामने उजागर करने से डरती औऱ जीवन भर घुटन में जीती है। समाज की आँखे खोलने के लिए ऐसे अनुभव सामने आने की जरूरत है।” पुस्तक की भूमिका में ही लेखिका अपने अनुभव बांटते हुए कहती है “मैं लेखिका नहीं हूँ, ना साहित्यिक लेकिन अस्पृश्य समाज में पैदा होने से ही जातीयता के नाम पर जो मानसिक यातनाएं सहनी पड़ी इसका मेरे संवेदनशील मन पर असर पड़ा। मैंने अपने अनुभव खुले मन से लिखे है। पुरूष प्रधान समाज स्त्रियों का खुल्लापन बर्दाश्त नही करता। पति तो इस ताक में रहता है कि पत्नी पर अपने पक्ष को उजागर करने के लिए चरित्रहीनता का ठप्पा लगा दे" भूमिका में ही लेखिका की दलित नारीवादी सोच के सूत्र प्रकट होने लगते है।

दलित महिलाए किस मेहनत मशकक्त और समझदारी से अपना घर चलाती है , वह इस आत्मवृत में कौशल्या बैसंत्री की माँ भागेरथी की संघर्षमय जीवन गाथा से बयान होता है। अनपढ, गरीब, परिश्रमी,दलित मजदूर भागेऱथी अपने इरादों में अचल हिमालय को भी हिलाने की ताकत रखती है। भागेरथी ने अपने सब बच्चे जिनमें लडके-लडकियाँ दोनों शामिल है सबको बिना किसी भेदभाव के बराबर शिक्षा दी। वह अपने बच्चों को अशिक्षित,रुढिवादी और पूर्वाग्राही समाज से बचाती हुई उनकी ढाल बन गई और उनकी रात-दिन रक्षा की। उनके राह से अस्पृश्चता, गरीबी और निराशा के काँटे हटाकर किस तरह शिक्षा ,ज्ञान और आशा के फूल खिलाए, यह दोहरा अभिशाप में बखूबी देखा जा सकता है। दोहरा अभिशाप में अनेक दलित महिला पात्र है जो सशक्त रूप से अपनी उपस्थिति दर्ज कराते है। सबकी अपनी - अपनी विशेषताएं है। ये सारे पात्र दलित महिलाओं के समाज जनित चरित्र को उभार कर रखते है। कमनी आत्या जो लेखिका की बुआ भी है जिस अक्लमंदी, हुनर और समझदारी से गृहस्थी चलाने के लिए अपनी आंखे चौतरफा खुली रखती है वह वास्तव में प्रशंसनीय है। लेखिका का कथन कमनी आत्या के यायावरी, खोजी व पारखी चरित्र को उभारता है- 'कमनी आत्या को कहाँ-कहाँ से क्या लाना है, इसका पता था। वे ही हमें ले जाती थी । हम बेर को खूब सुखाते। बाद में माँ इन बेरों को ओखली में कूटती और बीज निकाल कर बेर का पाउडर बनाती। फिर उनमें नमक मिला कर उनके बड़े की तरह टिकिया बनाकर धूप में सूखाती गर्मी के दिनों में माँ इन बडों को पानी में घोल कर उसमें चीनी मिला कर हमें कभी-कभी पिलाती थी, बरसात शुरू होने से पहले बहुत जोर की आंधी आती थी। कमनी आत्या सुबह अंधेरे में हमें इमलिया बीनने के लिए बुलाने आती थी।.... शनिवार के दिन कमनी आत्या के साथ कोई बहन बड़े बगली के कंपाउर के बाहर या मैदानों में साग तोड़ने जाती थी। चरोटा,चौलाई, पातूर, खापखुटी बगैरा नाम का साग तोड़ कर लाते थे...(pg14)
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बस्ती की ही एक अन्य दलित महिला सोगी मरा हुआ ढोर, गाय या बैल खरीदती थी। कोतवाल आकर उसे बता जाता था । जानवर का चमड़ा कोतवाल ले जाता था। सोगी जानवर को काटकर माँस बेचती थी। ठमि के माध्यम से मेहनती दलित महिला का चित्रण करते हुए लेखिका कहती है- "ठमि माँस के लिए ढेर सारी मिर्ची पीसती थी। उसके आँगन में ही मसाला पीसने का पत्थर पड़ा था। वह बहुत बारीक मसाला पीसती थी। गर्भवती रहती तब उसका पेट मसाला पीसते वक्त पत्थर से सट जाता था। हमने कभी उसे बैठते नही देखा । सारा दिन कुछ ना कुछ काम करती रहती थी। प्रसूति के आखिरी दिन तक । एक बार वह मसाला पीस कर उठी और एक घंटे बाद हमने देखा कि उसे बच्चा पैदा हुआ ।"(pg70) आत्मवृत में कामकाजी मजदूर औरत रामकुँवर का अपने साथ मिल में काम करने मजदूर साथी से प्रेम हो जाता है जिसके लिए उसका आलसी काम चोर, निखट्टू पति जयराम जिम्मेदार है जिसका जीवन अपनी बीबी की कमाई पर निर्भर है। वह घर में बैठकर दिनभर जुआ खेलता। और उसे काम ना करने पडे इस के वह रोज पेट दर्द का बहाना कर रामकुँवर को डराने के लिए कुएं में कूदने का नाटक करता था, पर कभी कुएं में कूदता नही था।

समाज में दलित महिलाओँ का स्थान सबसे नीचे है । दलित महिलाएं सामाजिक हिंसा और घरेलू हिंसा एक साथ अपने ऊपर झेलती है । दलित महिलाओं पर होने वाले अत्याचारों में दलित महिला को सरे आम नंगा घुमाना कोई नई बात नहीं है। सवर्णों द्वारा अपनी जातीय श्रेष्ठता सिद्ध करने के लिए दलित स्त्री की अस्मिता पर ऐसे ही हमले किए जाते रहे है, दुख जब होता है जब उसके समाज के द्वारा भी ऐसा होता है। सखाराम की बीबी द्वारा लेखिका ने दलित स्त्रियों की स्थिति का यथार्थवादी चित्रण किया है। "सखाराम की बीबी को ठेकेदार ने छेड़ा समाज ठेकेदार को सजा ना देकर निर्दोष दलित स्त्री को नंगा घुमाने की सजा दे तमाशा देखने का काम करता है- 'वे सब उस ओरत तो ही थोड़ा देर बाद सखाराम की बीबी को बाहर लाया गया। उसके बदन पर सिर्फ चोली थी, और वह एक औरत छोटा सा कपड़ा पहने थी। उसके माथे पर सफेद रंग की बिन्दी लगाई गई औऱ गले में चप्पलों की माला पहनाई गई। उसे गधे पर बिठाकर पूरी बस्ती में घुमाया गया बस्ती के लोग हो-हल्ला मचाकर उसे बस्ती के बाहर निकालकर वापिस आए। बाप रे कितनी अपमाजनक शिक्षा दी गई उस औरत को। उसका अपराध क्या था, बाद में हमने बस्ती की औरतो से सुना को ही दोषी ठहरा रही थी। यह औरत दिहाड़ी पर मजदूरी कर रही थी। वह उसे आते-जाते छेड़ता था। एक दिन उसने सीमेंट का गोला बनाकर उसकी छाती पर मारा। उस औरत ने उसे गालियाँ ही परन्तु वह बेशर्मी से हंसता रहा। साथ में खड़े मजदूर भी यह देखकर हंस रहे थे । यह बात उस औरत ने अपने पति से कही। पति का काम था कि वह जाकर उस बदमाश को डाँटे-फटकारे। परन्तु उसने अपनी औरत को ही डांटना शुरू किया मारा और कहने लगा कि और औरतें भी वहां काम करती है, उन्हें वह कुछ नहीं कहता और तुम्हें ही क्यों छेड़ता है? तुम ही बदलचलन हो, यह कहकर उशे रात भर बाहर रखा। वह बिचारी घर के पीछे रात भर डर-डर के रही और सवेरे उसे गधे पर बैठाया गया। बस्ती से बाहर निकालने के बाद वह बेचारी झाड़ी में छिपी रही, क्योंकि उसके बदन पर पूरे कपड़े नहीं थे। रात में वह बस्ती के कुएं में कूद गई। सवेरे उसका शरीर पानी में तैर रहा था। उसके माँ बाप आए और कहने लगे कि इसने हमारी नाक कटवाई, अच्छा ही हुआ कि यह कुलटा मर गई। इस औरत के दो छोटे लड़के थे एक पाँच वर्ष का और दूसरा तीन वर्ष का। उसके आदमी ने छह महीने बाद दूसरी औरत से शादी कर ली।'(pg 72,73)

लेखिका की नानी यानि आजी की कहानी भी आम दलित औरतों की तरह ही संघर्षपूर्ण है। आजी का बाल विवाह हुआ और वह बालविधवा भी हो गई। आजी की शादी एक अधेड उम्र के व्यक्ति मोडकू जी के साथ कर दी गई जिसकी पहले एक और बीबी थी तथा उसके बच्चे भी थे। आजी की सुन्दरता ही आजी के लिए अभिशाप बन गई। आजी का दिन रात मेहनत करके बच्चे पालना, तथा मोडकू से पिटाई खाना आम बात थी। अगर उसकी खुद की पिटाई होती तो वह सह लेती, लेकिन एक दिन पति द्वारा बच्चे को जान से मारने की कोशिश में आजी घर छोड़ कर चल दी। बिना किसी सहारे के, तीन बच्चों में एक बच्ची की रास्ते में ही मौत हो जाती है फिर भी आजी टूटती नही, झुकती नहीं। वह नागपुर आकर अपने बच्चों के साथ मेहनत मजदूरी करके रहने लगी। यहां भी उसके एक बेटे की मौत हो गई। मोडकू जी जो पत्नी का कोई सुख नही देना चाहते पर पति के नाते पति के सारे अधिकार उन्हें चाहिए थे, वे बीच-बीच में आकर अपना हक जमाते थे। लेखिका की माँ भागेरथी के लिए लड़का ढूढ़ने का काम मर्द ही कर सकते है, इसलिए विवाह के लड़का ढूढ़ना मोडकू जी अपना कर्तव्य समझते है। भागेरथी के लिए अच्छा पढा-लिखा लडका मिलने के बाद भी मोडकू जी को वह रिश्ता बस इसलिए स्वीकार नही हुआ क्योंकि लडके ने शादी से पहले ही लडकी को संबोधित करके "पत्र भागेरथी को मिले" कहकर चिट्ठी लिख दी।
आजी के माध्यम से लेखिका सिद्ध करती है कि दलित औरतें - आत्मनिर्भर व आत्मविश्वास से भरी होती है वह अपने मरने का कफ़न भी खुद जुटा लेती है-'आजी हरदम कहती थी वे अपनी लड़ाई खुद लडेगी, किसी पर बोझ नहीं बनेगी। अपने कफ़न का सामान भी वह स्वयं जुटाएँगी और उन्होंने अपनी बात पूरी करके दिखाई। कफ़न का सारा सामान उनकी गठरी में मौजूद था। वह मानिनी स्वाभिमान से रही, किसी के आगे नहीं झुकी।"(pg29) ललिता जल्दी ही सबसे घुल मिलने तथा खुशनिजाज स्त्री है उसके इस स्वाभिमान के कारण ही उस पर अनेक तरह के आरोप लगते है। ललिता का जिन्दगी भर दुख मुसीबते झेलते हुए पढाई जारी रखना और सफल हो जाने पर संदिग्ध हालत में मौत हो जाना मन को व्यथित कर देता है।

इन महिला चरित्रों के अलावा दोहरा अभिशाप में दलित आन्दोलन व दलित महिला आन्दोलन में जुझारु व ऐतिहासिक पात्र जाई बाई चौधरी और झूला बाई का नाम विशेष स्थान रखता है। अम्बेडकरवादी आन्दोलन में इन दलित नेत्रियों का योगदान अमूल्य है। इनके कार्यों व इनके योगदान का वर्णन पुस्तक को अन्य साधारण पुस्तकों से अलग कर देता है। जाई बाई चौधरी और झूला बाई जिन्होंने एक उद्देश्य के तहत दलित बच्चे औऱ बच्चियों के लिए पाठशालाएं खोली। स्वयं लेखिका जाइ बाई चौधरी के विधालय से पढ़कर निकली। दलित आन्दोंलन के उभार के शुरूआती संकेत और संघर्ष लेखिका ने बखूबी उभारे है। जाई बाई चौधरी के विधालय का वर्णन करते हुए लेखिका कहती है- “जाई बाई चौधरी के स्कूल में पढाई की कोई फीस नहीं ली जाती थी कभी-कभी शिक्षक नहीं मिलते थे तो उनका लड़का, कभी-2 बहु भी हमें पढ़ाती थी जाई बाई भी कभी-कभी पढ़ाती थी । हमारे पास चोखामेला अस्पृश्य विधार्थी हॉस्टल था वहां नागपुर से बाहर के लड़के रहते थे। कभी-कभी विधार्थी भी हमें पढ़ाने आते थे"(pg39) जाई बाई लेखिका की शुरूआत चौधरी के विधालय से हुई संभवत: इसी कारण लेखिका आगे चलकर दलित आन्दोलन में जुड गई ।वही उनकी राजनैतिक और स्त्रीवादी शिक्षा भी हुई। जाईबाई चौधरी और झूलाबाई के साथ किसन भागुजी बनसोडे जी का भी दलित बच्चियों का भी उनकी शिक्षा में महत्वपूर्ण योगदान है। उन्होने अपनी पत्नी को तैयार किया कि वे लड़कियों को पढ़ाएं।

लेखिका बचपन से ही दलित आंदोलन की सक्रिय कार्यकर्ता बन गई और इसी लिए उनके और उनके जीवन पर बाबासाहब के व्यक्तित्व का बहुत गहरा असर हुआ जिनका उन्होने कई जगह चित्रण किया है। दोहरा अभिशाप के माध्यम से हम दलित छात्र आंदोलन और अस्पृश्य समाज पर डॉ.अम्बेडकर के बढते प्रभाव की झलक देख सकते है। अपने माँ-बाबा पर बाबा साहब के प्रभाव का वर्णन करते हुए लेखिका कहती है-”उन्होने बाबा साहब अबेडकर का कस्तूरचंद पार्क में भाषण सुना था कि अपनी प्रगति करना है तो शिक्षा प्राप्त करना जरुरी है। लडका और लडकी दोनों को पढाना चाहिए। माँ के मन पर इसका असर पढा था और उन्होने हम सब बच्चों को पढाने का निश्चय किय़ा था, चाहे कितनी ही मुसीबतों का सामना करना पडे ।(pg47) डॉ अम्बेडकर का प्रभाव केवल दलित पुरुषों पर रहा हो ऐसा नही । उनका असर घर में रहने वाली दलित महिलाओं पर भी खूब हुआ। " अस्पृश्यों की बस्तियों में चक्की में आटा पीसती हुई औरते बाबा साहब के गीत गाती थी और लडका पैदा होने पर उसको झूले में डालने के समय भी और बच्चे के जन्मदिन पर भी बाबासाहब के गीत गाए जाते थे और कामना की जाती थी कि बच्चा बाबा साहब जैसा बने।“(pg82)

लेखिका ने दलित लड़की होने के नाते पढ़ाई-लिखाई और बाद में अपने गृहस्थी के दिनों में बहुत कष्ट झेले। शायद यही वजह की ब्राह्मणवादी पितृसत्तात्मक समाज में दलित स्त्रियों की दुर्दशा के लिए जिम्मेदार सामजिक कुप्रथाएं जिनमें अनमोल विवाह, बाल विवाह और बहुविवाह पर उन्होंने अपनी आत्मकथा में कड़े प्रहार किए है। अपनी बहन की कम उम्र की शादी करने की मजबूरी का वर्णन सशक्त तरीके से करते हुए लेखिका कहती है- “आदमी कितना ही दृढ़ हो फिर भी सामाजिक बंधनों के आगे झुकना ही पड़ता है। कुछ रीति रिवाजों को मानना ही पड़ता है चाहे इच्छा न हो, नहीं तो सामाजिक विरोध सहन करना पड़ता है। माँ - बाप का बड़ी बहन को पढ़ाने का बहुत मन था। माँ चाहती थी कि बहन पढ़कर कम से कम प्राइमरी शिक्षिका बने। परन्तु उनका विवाह करना भी जरूरी था, क्योंकि ज्यादा बड़ी होने पर लड़का मिलना मुश्किल काम था। उपजातियाँ में भी विवाह नहीं होते थे । आम महार जाति के लोग भी कम पढ़े-लिखे थे। बहन ने चौथी कक्षा तक की पढ़ाई की थी, बहन की शादी पक्की कर दी गई। वे आगे नहीं पढ़ पाई। इसका माँ को हमेशा दुख रहा। बहन की जब शादी हुई, माँ उस वक्त माँ अठ्ठाईस या उन्तीस वर्ष की होगी।"(pg39)

बाल विवाह की तरह ही समाज में प्रचलित अमानवीय प्रथा अनमेल विवाह का भी लेखिका ने अपनी सहेली के माध्यम से बहुत ही कारुणिक चित्र खींचा है। जब लेखिका की शादी की बात चली। लेखिका की सहपाठी "सुलोचना बाई डोगरे के पति नें हमें अपने घर बुलाया बहाने से। सुलोचना बाई की मृत्यु के बाद उनकी दूसरी शादी छोटी साली से हुई थी। उनकी यह दूसरी पत्नी शारदा, में और उनकी बड़ी बहन पुष्पा (जो अब जीवित नहीं हैं) एक ही हॉस्टल में एक ही रूम में रहती थी। यह हॉस्टल धरमपेठ में था ओर अस्पृश्य लड़कियों का था। शारदा को मिलने मैं और छोटी बहन मधु उनके घर गए। तब वे सदर में रहते थे। शारदा और श्री डोंगरे की उम्र में करीब 20 वर्ष का अंतर था। मैंने शारदा से पूछा कि वह कैसे तैयार हुई इस शादी के लिए? शारदा की आँखे भर आई। उसने कहा कि कभी फुर्सत से माना तब बताऊंगी।"(pg95) माना जाता दलित समाज और समाजों की अपेक्षा थोड़ा अधिक खुला है परन्तु ऐसा नही कि स्त्रियों की दशा में उससे कोई फर्क आया है। विधवा विवाह पर टिप्पणी करते हुए लेखिका कहती है- "अस्पृश्य समाज में अगर कोई विधवा दुबारा शादी करना चाहे तो उसके लिए कोई रोक-टोक तो थी नही परन्तु इस, दूसरी शादी की विधि अलग थी और इसे विवाह ना कहकर 'पाट' कहते थे इस विधि में विधवा को सारे सौभाग्यवती के चिन्ह मंगलसूत्र, बिछुए ,बिन्दी वगैरा लगाकर सिंदूरी रंग की साड़ी पहनाकर रात के अंधेरे में उसका पति अपने घर लाता था।... विधवा का मुँह सधवा ना देखें, इसलिए रात में उसे लाते होंगे। जबकि विधुर पुरूष तो धूमधाम से अपनी शादी कर सकता था पूरी विधि के साथ, और किसी कुमारी के साथ, परन्तु विधवा या तलाकशुदा औरत किसी कुँआरे आदमी के साथ शादी नहीं कर सकती थी।"(pg17) बहुविवाह दलित समाज में भी प्रचलित था और इसे बिल्कुल बुरा नही माना जाता था । इसका उदाहरण लेखिका अपनी नानी आजी के बाल विधवा हो जाने पर देती हुई कहती है - "अच्छा खाता पीता घर देखकर आजी का पाट मोडकू साहूकार के साथ कर दिया गया। वैसे एक-दो औरतों से शादी करना उस वक्त कोई बुरा नहीं मानता था। यह आम बात थी। पैसे वाला तो इसे शान समझता था। मोडकू जी लोगों को सूद पर पैसा भी देते थे इसलिए और भी अकड़ते थे। दूसरी शादी पर पत्नी के विरोध का कोई महत्व नहीं था। उनको मार पीट करके चुप करा दिया जाता था।"(pg 18 )

दोहरा अभिशाप आत्मवृत में लेखिका अपने परिवार के माध्यम से दलित समाज में व्याप्त गरीबी का मार्मिक चित्र उकेरने में कामयाब हुई है। अगर दूसरे शब्दों में कहे तो यह कहा जा सकता है कि दोहरा अभिशाप में गरीबी के कारण परिवार पर पड़ने वाले असर, खासकर बच्चे और स्त्रियों पर बुरे असर का विस्तृत वर्णन हैं। गरीबी के कारण घर के सभी सदस्यों को बाहर काम करने के जाना जरुरी था ऐसे में घर के छोटे बच्चों को सबसे अधिक दुर्दशा होती थी। - “बस्ती में छोटे बच्चों की मृत्यु ज्यादा होती थी बीमारी की हालत में भी माँ बाप उसे घर के किसी बड़े व्यक्ति के ( जैसे सास ससुर ) भरोसे छोड़कर जाते थे ,क्योंकि काम पर ना जाने से उन्हें पैसे नहीं मिलते और खाने के लाले पड़ते थे। बड़ा व्यक्ति घर में ना हो तो और बच्चों की देखभाल करने वाला कोई ना हो तो उस बच्चे को अपने साथ जहाँ काम करते वहाँ ले जाते और पास ही किसी पेड़ या किसी बड़े घर की छाया में कपड़ा बिछाकर लेटाते... पाँच साल के बच्चे के हवाले भी माँ बाप छोटे बच्चे को पालने में डालकर चले जाते थे। पाँच साल का बच्चा पालने की रस्सी खींचता रहता। झूले में बच्चा सो जाता तो वह खेलने चला जाता । कभी उसे नींद आ जाती तो वहीं जमीन पर लुढ़क कर सो जाता पालने में बच्चा रोता रहता, फिर सो जाता। पास में माँ काम कर रही होती तो वह दौड़ी-दौड़ी आती और जल्दी से दूध पिलाकर चली जाती। बच्चा टट्टी पेशाब में सारा पड़ा रहता था। शाम को माँ आने पर ही उसको साफ करती थी। रेंगने वाला बच्चा हो तो उसके पाँव में लम्बी रस्सी बाँधकर उसका एक सिरा किसी खाट से बाँध देते और आस पास कुछ खाना कटोरी में रख देते या मुरमुरे जमीन पर ही डाल देते थे। बच्चा उन्हें बीन-2 कर खाता रहता था। रो रोकर जमीन पर ही सो जाता टट्टी पेशाब में ऐसे में उन्हें बीमारियां होना स्वाभाविक था और मृत्यु भी------- (pg 33) यह कडवा सच है कि दलित परिवारों में बच्चों की शैशवावस्था में सबसे अधिक मौते होती है जिसका कारण गरीबी अज्ञानता अशिक्षा, कुपोषण और सबसे अधिक दलित होने के कारण समाज द्वारा बरती जा रही सामाजिक व राजनैतिक उदासीनता है। गरीबी के कारण गंदगी, गंदगी के कारण बीमारी और बीमारी का मुख्य कारण गरीबी के कारण अंधविश्वास के दलदल में फँसते दलित समाज का वर्णन करते हुए लेखिका कहती है। "बच्चे के ज्यादा बीमार होने पर ही डॉक्टर के पास ले जाते थे। कभी नगर पालिका के दवाखाने में या सरकारी अस्पताल में। घर में भी झाडफूंक करने वाले से तंत्र-मंत्र, टोने-टोटके वगैरह कराते थे। लोग भूत-प्रेतों पर भी ज्यादा विश्वास रखते थे। खसरा, चेचक, टाइफाइड को देवी प्रकोप मानकर वे शीतला माता की पूजा करते थे। अगर बस्ती में काफी खसरा, चेचक फैला हो तो बस्ती की औरतें झुंड बनाकर, माता के गीत गाती, सिर पर पानी का घड़ा, उसमें नीम की पत्ती डालकर पत्थर की बनी माता की मूर्ति के ऊपर चढ़ाकर आती थीं। बीमारी ठीक होने पर बड़ी पूजा होती.... देवी का प्रकोप होगा इसलिए वे सिर्फ देवी की पूजा पर ही भरोसा रखते थे। जब तक बीमार की बीमारी ठीक नहीं हो जाती तब तक घर में झाड़ू से सफाई नहीं करते थे, कपड़े से घर झाड़ा जाता था। इन सब अंधविश्वासों और उपेक्षा के चलते दलित परिवारों में बच्चों की मृत्युदर बहुत अधिक है।"(pg33) बच्चों की मृत्यु के संबंध में स्वयं लेखिका की सबसे छोटी बहन जो मात्र एक वर्ष के भीतर ही मर गई उसका उसका भी लेखिका नें बड़ा मार्मिक चित्र खींचा है। दलित परिवारों में बच्चों के साथ-साथ दलित बच्चियों की दुर्दशा और भी भयानक है। लेखिका अपनी कक्षा में पढ़ने वाली एक छात्रा के बारे में बताती हुई लिखती है- "उसने मुझे बताया कि वह सवेरे चार बजे उठकर बर्तन, झाडू, खाना बनाना बगैरह सब घर का काम करके आती थी। उसकी माँ थोड़ी पागल सी हो गई थी और घर से निकल जाती थी। उसके पिता दर्जी का काम करते थे। शाम को घर का काम करते-2 वह कभी-कभी पिताजी को शर्ट, ब्लाऊजों में बटन लगाने में भी मदद करती थी। बहुत देर हो जाती थी सोने में और थकावट के मारे उसे खूब नींद आने लगती थी उसके भाई बहन भी स्कूल में पढ़ने जाते थे काम का बोझ उसी पर रहता था। फिर भी उसने मैट्रिक पास किया।"(pg55)

दलित बच्चों के साथ लेखिका ने दलित स्त्रियों की दुर्दशा की भी मार्मिक चित्र खींचे है। जीवन की सबसे मूलभूत आवश्यता पानी के अभाव में दलित बस्तियों में औरतों की आपस में पानी के लिए झगड़ा, सिरफुटौवल का वर्णन करते हुए कहती है- "औरतें एक दूसरे के बाल नोचती थी और गंदी-गंदी गालियाँ एक दूसरे को देती थी।जैसे तू रंडी है, यारो के साथ घूमती है। कुछ गालियाँ तो इतनी गंदी होती थी कि सुनकर ही घृणा आती थी। नल हमारे घर के कोने पर था इसलिए हमें सवेरे-शाम इस शोर को सुनना पडता था। एक दो बार हम बहनों के बाल भी नल पर नोचे गए।"(pg-37) आत्मवृत में जितने भी महिला-पात्र है चाहे वह लेखिका की नानी हो अथवा बस्ती में रहने वाली उमि, रामकुँवर या फिर सखा राम की बीबी इन सबके माध्यम से दलित महिलाओं की स्थिति भली प्रकार उजागर हो जाती है ।

दोहरा अभिशाप की एक और विशेषता है कि इसमें लेखिका ने तटस्थ होकर अपना मूल्यांकन किया है जहाँ बार-बार वो अपने अन्दर बैठी-हीन भावना की ओर संकेत करती है। यह हीन भावना उसे स्कूल से लेकर कॉलेज जाने व विवाह करने तक उसके अन्दर कई महत्वपूर्ण फैसले लेने से रोकते रही। इसमें कोई शक नहीं भारत में जातिवाद के चलते सम्पूर्ण दलित समाज को सवर्ण जातियों ने हमेशा सामाजिक व वैयक्तिक घृणा की दृष्टि देखा है, जिसके कारण उनके अन्दर पनपी व सवर्ण समाज द्वारा कूट- कूट कर भरी गई हीनभावना ने दलितों के अंदर छिपी प्रतिभा को कहीं बाहर आने का मौका नहीं दिया। एक तो दलित जाति से, दूसरे गरीबी तीसरे स्त्री होने के कारण लेखिका को कई बार अपमानित और बेइज्जत होना पड़ा। स्कूल में हुए अपमान में लेखिका के ऊपर पुस्तक चोरी का झूठा इलजाम तथा कक्षा की पिकनिक में लेखिका के तेल की शीशी को प्रयोग ना करना लेखिका के बाल मन में बुरी तरह से हीन भावना पैदा कर गया। इसी तरह के अपमान और उत्पीडन का लेखिका ने दोहरा अभिशाप में कई जगह वर्णन किया है । एक बार जब लेखिका अपनी सहपाठी तिलेली जाति की लड़की के घर स्कूल ना जाने का कारण पूछने गई तो- “उसकी दादी ने एक प्लेट में दो सूजी के लड्डू और एक गिलास में पानी मेरे आगे रखा और बड़े आग्रह से मुझे खाने को कहा। मैं डर-डर के खा रही थी। और जल्दी वापिस जाना चाह रही थी। उसकी दादी ने पूछा कि मेरे बाबा क्या काम करते है। मैंने उससे कहा कि वे किसी दफ्तर में काम करते है। मेरे बाबा उस वक्त कबाड़ी का काम करते थे। मैं जल्दी ही उसके घर से यह कहकर निकली की माँ राह देख रही होंगी। मैं जल्दी-जल्दी कदम बढ़ा रही थी और पीछे देखती जा रही थी, मानों मेरे पीछे बाध दौड़ा आ रहा है। उस वक्त छुआछुत बहुत थी। मारपीट तक हो जाती थी इसलिए मैं बहुत डर गई थी। इस लड़की ने भी स्कूल छोड़ दिया और मैंने राहत की साँस ली"(pg42) एक अन्य जगह वह लिखती हैं- “कभी मैं गोबर उठाती तो बहन इधर-उधर देखती, कोई आता दिखता तो मुझे झट इशारा करती थी। मैं गोबर उठाना छोड़कर खड़ी हो जाती थी। गोबर उठाने में शर्म लगती थी परन्तु उपले बन जाते से कुछ घर के लिए मदद होगी, यह भावना मन में रहती थी।"(pg55 )जातिगत आधारित हीनभावना के चलते लेखिका खेलकूद में अच्छी होने के बावजूद व स्कूल के किसी भी कार्यक्रम में भाग ना लेने का दुख व्यक्त करते हुए कहती है-मैंने स्कूल के किसी कार्यक्रम जैसे खेलकूद, नाटक वगैरह में कभी भाग नहीं लिया। मुझमें हीनता की भावना भरी थी। मैं खो-खो, कबड़ी वगैरह अच्छा खेल सकती थी। परन्तु में आगे बढ़ने से डरती थी। मैं अस्पृश्य हूँ यह भावना मेरे मन से जाती ही नहीं थी।(pg53)

लेखिका को दलित औरत होने के कारण बार-बार मानसिक व सामाजिक हिंसा का शिकार होना पड़ा। उस पर यह हिंसा गैर दलितों से लेकर अपने दलित समुदाय के व्यक्तियों द्वारा भी की गई। लेखिका जब कॉलेज जाने लगी स्कूल दूर होने के कारण वह साइकिल से जाती थी लेकिन ब्राह्मण जाति के लड़कों द्वारा तंग करने का वर्णन करते हुए लिखती है- "मैंने स्कूल में साइकिल चलाना सीखा था। एक आना घंटे के हिसाब से दुकान से साइकिल किराए पर मिल जाती थी। मैं कभी-कभी किराये पर साईकिल लेकर बहन के घर जाती तो कभी अपनी सहेली नलिनी या प्रेम के घर। बस्ती के लड़के जबरदस्ती मेरे आगे आते ताकि मैं गिर पडू और उन्हें हँसने का मौका मिले। बस्ती के बाहर उच्चवर्णीय लोगों के लड़के भी हम पर बहुत जलते थे। ये हरिजन बाई जा रही है। दिमाग तो देखो, इसका बाप तो भिखमंगा है, साईकिल पर जाती है। कहकर वे भी साइकिल से गिराने की कोशिश की। अपने को उच्चवर्णीय समझने वाली औरते भी मुझे साइकिल पर जाता देखकर बड़े कुत्सित ढंग से हँसती थी। उन्हें ताज्जुब भी होता था कि हम अछूत और मजदूर बच्चे कैसे इतना पढ़ सकते है।" (pg60)इतना जातीय अपमान झेलने के बाद भी जब लेखिका ने साइकिल पर जाना बंद नहीं किया तो बस्ती मोहल्ले के लोगों ने पुलिस में शिकायत लिखवा दी कि लेखिका की साइकिल चोरी की है। बस्ती के लोगों की शिकायत पर इंस्पेक्टर ने घर आकर जब लेखिका के परिवार से मुलाकात की तो उसे असली बात का पता चला, कि लेखिका के परिवार को मात्र पढ़ने लिखने के कारण ही यह सब झेलना पड़ता है ।चूंकि इंस्पेक्टर स्वयं पिछड़ी जाति का था इसलिए वह पूरी परिस्थिति भाँप कर बस्ती के लोगो को डॉटकर जाता है और काफी बाद तक लेखिका के घर अपनी पत्नी के साथ आता- जाता रहा। ऐसी ही और भी कई घटनाएं है जब गली मोहल्ले के लोगों द्वारा लेखिका के परिवार को तंग किया जाता था। लेखिका के परिवार को अपने ही दलित समुदाय के लोगों द्वारा तंग करना कोई अनोखी बात नही है। जहाँ पर एक ही जाति या समुदाय के लोग रहते है कमोबेश उनका व्यवहार अपने समुदाय में थोडा अलग हटकर जीने वालों के लिए ऐसा ही होता है। दलित समाज हमेशा से उपेक्षित जीवन जीता रहा है इसलिए जब तक दलित बस्तियों में शिक्षा की रोशनी नही पहुचेगी, उनके पास जीवन के मानवीय व मौलिक साधन व अधिकार उपलब्ध नही होंगे तब -तब दलित समुदाय का व्यवहार अज्ञानता, अंविश्वास के गर्त से भरा रहेगा।-बस्ती की मानसिकता बताते हुए लेखिका कहती है- "बस्ती में कुछ लोग ऐसे थे जो हमारा सुधारा हुआ रहन-सहन सहन नही कर पाते थे। उनमें हमारे कुछ रिश्तेदार भी शामिल थे जो हमसे इसलिए नाराज थे कि हम पढ़ते क्यों है? माँ उन्हें अहमियत नहीं देती थी। वे लोग बस्ती के लोगों से मिलकर हमें तरह-तरह से तंग करते थे, गणपति उत्सव के समय हमारे घर पर बड़े-बड़े पत्थर फेकते थे। कभ-कभी मसाला पीसने का बट्टा तक फेंक देते थे हम चुपचाप रहते। माँ बाबा को चुप बैठने को कहते। बाबा कहते मूर्ख लोग है। इनके मुँह नहीं लगना चाहिए। छत्त के खपरैल चूर-चूर हो जाते। पिताजी मिल से आने के बाद नए खपरैल डालकर छत्त को दुरूस्त करते।"(pg61 )अपने समुदाय य़ा आस-पास रहने वाले लोग औरतों को घर के अंदर बंद कर उन्हे गुलाम बनाने के लिए किस तरह सामाजिक दबाव बनाते है इसका वर्णन लेखिका ने अपने साथ दिन प्रति दिन होने वाले मानसिक व सामाजिक व यौनिक उत्पीडन के माध्यम से किया है - “एक बार मैं अपनी बुआ के घर से आ रही थी मेरी बुआ हमारी बस्ती में ही दूसरी लाईन में रह रही थी। माँ ने किसी काम से मुझे वहीं भेजा था। मैं जब उनके घर से वापिस आ रही थी तब एक घर की दीवार से सटकर कुछ गुंडे किस्म के आवारा लड़के बैठे ताश खेल रहे थे। उन लड़को में एक लड़का हमारी लाईन में रहता था और निहायती शरीफ था, शादीशुदा और दो बच्चों का बाप भी था। वह मेरे पास आया और मेरी बाँहों मैं अपनी बाँहे डाल दी मैंने अपनी बाँहें छुड़ा ली और दो चांटे कसकर उसके गाल पर मारे।"() इस तरह की एक अन्य घटना जिसमें पड़ौस में रहने वाला बंगाली लड़का लेखिका के घर से आकर चुपचाप उसका फोटो उठाकर ले गया और फिर उसे ब्लैकमेल करने के लिए लेखिका को डराना चाहता था पर लेखिका ने बड़ी बहादुरी से उसका मुकाबला किया- "मैं और मेरी बहन कस्तूरचंद पार्क से स्कूल जा रही थी, तब वह दौड़ा-दौड़ा आया और हमारे आगे वह फोटो धर दिया। मैं यह फोटो देखकर हैरान रह गई। वह बार-बार मेरे आगे फोटो लेकर चलने लगा। मुझमें कहा से हिम्मत आई, पता नहीं - मैंने अपने पाँव से चप्पल निकाली और उसके गालपर दे मारी। वह थोड़ा सहम गया और दूर हटा, फिर फी फोटो आगे कर कुछ बड़-बड़ करता रहा। एक लड़के ने देखा। वह दौड़ा-दौड़ा आया और उसे पकड़ा और मैंने दो-तीन चप्पले और उसकी पीठ पर मारी" (pg62 )
मोहल्ले बस्ती के अलावा लेखिका ने कई बार हिंसा झेली इसमें कुछ उदाहरण है। मेयर द्वारा रात में बुलाना, अस्पताल के कम्पाउंडर द्वारा नर्सिंग कराने का लालच देकर लेखिका को एक बूढ़े के पास ले जाना आदि। लेखिका जब अम्बेडकर के आन्दोलन में जुड़ी तब उसको अपने ही समाज के एक प्रसिद्ध व्यक्ति द्वारा बेइज्जत होना पड़ा। इस व्यक्ति का लेखिका ने नाम कहीं नहीं दिया पर बताया कि यह व्यक्ति समाज में अत्यन्त प्रसिद्ध और बाबा साहब के सहयोगी थे। अखिल भारतीय अस्पृश्य अधिवेशन में उनसे लेखिका की मुलाकात हुई थी, “दो तीन दिन बाद वे सवेरे नो बजे हमारे घर अकेले आए। मेरा भाई औऱ छोटी बहन स्कूल का काम कर रहे थे। बाकी हो बहने घर का कुछ काम कर रही थी, मैं ऊपर वाले कमरे में अपनी पुस्तकें कापियाँ बस्तें में भर रही थी। उन्होंने मेरे छोटे भाई और बहन से मेरे बारे में पूछा। भाई ऊपर से बुलाने आने वाला था कि उन्होंने उसे मना कर दिया और वे सीढ़ी चढ़कर ऊपर आ गए मैं उन्हें देखकर नीचे उतरने ही वाली थी कि उन्होंने मेरा हाथ खींचने की कोशिश की मैं झटपट सीढ़ियाँ उसरने लगी। उन्होंने जोर से मेरी चोटी खींची। नीचे उतरने पर मैंने उनसे चले जाने को कहा और दुबारा यहां आने को मना किया। बाद में मैंने एक-दो औरतों से सुना कि वे उनके घर जाकर भी ऐसी हरकतें कर चुके है। किसी का हाथ दबाया तो किसी को आँख मारी।"(pg91 )

दोहरा उपन्यास में दलित पुरूषों की मानसिकता पर लेखिका ने कई बार बात की है।चाहे वह उनके पति देवेन्द्र कुमार हो या फिर दलित आन्दोलन में जुडकर काम कर रहे दलित साथी। एक तरफ ये दलित कार्यकर्ता महिलाओं और दलित लड़कियों को आन्दोलन में जुड़ने को कहते है लेकिन दूसरी तरफ ये भी चाहते है कि वही महिलाएं जब उनकी पत्निया बन जाए तो घर बार संभाले और बच्चों की देखभाल ही करे । इसी दोहरे मापदण्ड के कारण ही कि आज भी दलित आंदोलन में जुडी दलित महिलाओं की संख्या बहुत कम है। लेखिका कौशल्या बैसंत्री छात्र जीवन भोगी पुऱुष मानसिकता से रुबरु होती हुई बताती है - "हमारे समाज के कुछ विधार्थी हमें उपदेश देते है कि ब्राह्मणों की लड़कियों को देखो, हर क्षेत्र में कितनी फॉरवर्ड है, तुम लोगों को भी वैसा ही बनना चाहिए, बगैरह। लेकिन खुद वे डरपोक थे। रास्ते में मिलते थे, कभी तो खड़े होकर बात करते थे किन्तु कोई जान-पहचान वाला आ जाता तो आँखें चुराते या भाग जाते थे, कभी-किसी का परिचय कराना हो तो कहते- ममेरी बहन है। मामा की लड़की से हमारे यहाँ शादी हो सकती थी।"(pg75 ) लेखिका ने कई साल दलित आंदोलन में जुडकर कार्य किया और हमेशा करना चाहती थी इसलिए वह एक दलित एक्टिविस्ट से शादी करना चाहती थी। इसलिए उन्होने देवेन्द्र कुमार के साथ शादी का निर्णय लिया । पर हमारा पुरुष मानसिकता से ग्रसित ब्राह्मणवादी समाज और उसमें पले बढे लोग स्त्रियों के शादी करने जैसे नीजि मामले में स्वत्रंत फैसला लेने को जघन्य अपराध की श्रेणी में गिनते है। देवेन्द्र से शादी करने में पहले हाँ करने का खामियाजा लेखिका को जिन्दगी भर तू ही मेरे पीछे पडी थी कहकर चुकाना पडा।

" मैने शादी के लिए पहल की थी जरुर। पर यह कोई बडा अपराध नही था। मैने कोई जोर-जबर्दस्ती नही की थी।फिर भी मुझसे बार-बार कहता कि तुम्हे कोई नही मिला , इसलिए तुमने मेरे साथ शादी की। एक बार छोटे लडके ने टोका कि आपकी शादी को चालीस साल हो गए और आप बार-बार इसकी रट लगाते हो। तब उसके ऊपर नाराज हो गया।"(pg105) हलाकि दोहरा अभिशाप में लेखिका ने अपने के पति के साथ बिताए दिनों या उनके वर्णन से अधिक दलित समाज में लोगो के आपसी सबंध, उनके धार्मिक रीति-रिवाज, विश्वास -अंधविश्वास, बस्ती का सामाजिक व मनोवैज्ञानिक चित्रण करने में अधिक रुचि दिखाई है। बावजूद इसके लेखिका अपने पति से जुडी जितनी भी घटनाओं का वर्णन किया है वह उनमें अपने आपसी रिश्तों को बयान करने में बिल्कुल सफल रही है। देवेन्द्र दलित आंदोलन का सक्रिय कार्यकर्ता है । जब तक लेखिका से उसकी शादी नही हुई तब तक उसका वर्ताव लेखिका से सहयोग पूर्ण है, मित्रवत है। जैसे ही शादी हो जाती है दृश्य बदल जाता है, मित्र की जगह पति विराजमान है और पति के साथ उसकी "पुरुष अहम" है। "देवेन्द्र कुमार की आदत थी कि वह कभी मेरे साथ घर की समस्याओं के बारे में बातचीत ,सलाह-मशवरा नही करता था। वह अपने ही घेरे में रहने वाला आदमी था। उसको किसी की भावना,इच्छा, खुशी आदि की जरा भी परवाह नहीं, इसका मुझे जल्दी ही अनुभव हो गय़ा।”(pg100)

पति पत्नी के रिशतों में गाँठ पडने से परिवार के परिवार बर्बादी के रास्ते पर चले जाते है । इसका सबसे अधिक असर बच्चों पर पडता है। परिवार के लिए पति-पत्नी में किसी एक की भी उपेक्षा बच्चों के लिए किस कदर भारी पड सकती है इसका अंदाजा लेखिका के सबसे बडे पुत्र जो की छठी कक्षा में पड रहा था उसकी मौत से लगाया जा सकता है। कौशल्या जी ने कई जगह अपने पति द्वारा बरती जा रही उपेक्षा का मार्मिक चित्रण किया है खास कर जब उनका पाँचवा बच्चा पैदा होने वाला था। उस पूरे प्रकरण पर लेखिका अपनी टिप्पणी करती है- ऑपरेट अस्पताल के दफ्तर में गया। तब उन्होंने 200/- रूपये का बिल दिया। उसने मुझे आकर कहा कि साहब ने मुझे सिर्फ तीस रूपये दिए है, तीन रूपये रोज के हिसाब से, दस दिन का कमरे का किराया, बस। मैं बहुत दुखी हो गई। माँ भी घर चली गई थीं। यहाँ छुट्टी होने पर आया, सफाई कर्मचारी, सभी बख्शीश माँगते हैं। उन्हें कुछ पैसे देने ही पड़ते है। और मेरे पास एक फूटी कौड़ी भी नहीं थी। मैंने कहा कि जाकर माँ से पैसे माँगकर लाओ। उन्हें बाद में दे देंगे। वह समझदार था। उसने कहा: “आपकी माँ को बुरा लगेगा। आप उनसे न माँगें। मैं कुछ इंतजाम करता हूँ।” वह चला गया और करीब दो बजे आया। बेचारा इधर – उधर पैसे के इंतजाम में लगा होगा। माँ को लगा, पैसे वगैरह देकर मैं घर आ जाऊंगी, इसलिए वह मेरी राह देख रही थीं। कि अभी आती ही होगी। सवेरे सिर्फ चाय भेजी थी लड़के के हाथ। यह सोचकर कि अब घर आकर खाना खाएगी। अस्पताल का बिल देकर रसीद वगैरह लेने में तीन बज ही गए। भूख से बेहाल हो रही थी। टैक्सी मिल नहीं रही थी। बड़ी मुश्किल से चार बजे तक टैक्सी मिली। साढ़े चार बजे घर पहुँची। मुझे चक्कर आने लगा। माँ ने झटपट नहाने को पानी दिया। मैं नहाई और खाना खाकर सो गई। क्या ऐसे पति से प्यार, श्रद्धा हो सकती है ? इस प्रसंग की याद आते ही मेरा खून खौलने लगता है।"(pg119)

दोहरा अभिशाप, लेखिका के अपने परिवार तथा अपने माँ-बाबा समझदारी से चलने के कारण जीवन में आने वाली प्रत्येक संघर्ष , मुसीबत, बीमारी और परेशानी का डटकर मुकाबला करने के सुंदर चित्र अंकित किये है। माँ तथा बाबा दोनों ही अनपढ है लेकिन जिस लगन और निष्ठा से अपने परिवार को तमाम मुसीबते झेलते हुए पढाते है खासकर घर की बेटियों को भी यह अपने आप में बहुत ही प्रेरणादायक है।

दोहरा अभिशाप लेखिका के साथ-साथ लेखिका के परिवार की संधर्ष गाथा का अनुपम दस्तावेज है। दोहरा अभिशाप के माध्यम से हम उन्नीस सौ छब्बीस से लेकर आज तक के दलित समाज की यथार्थवादी, व बदलती हुई तस्वीर देखी जा सकती है.। लेखिका ने अपनी पुस्तक दोहरा अभिशाप में गरीबी ,अभाव, अशिक्षा, अज्ञान, अंधविश्वास, सामाजिक असमानता, और जातीगत नफरत के कारण दलित बच्चों,स्त्रियों व पूरे दलित समाज की दुर्दशा के ह्रदय विदारक चित्रण किया है। लेखिका एक स्त्री और वह भी दलित स्त्री जो समाज की सब वर्जनाओं, बंदिशों को तोडकर आगे बढना चाहती है उस स्त्री के विरोध में हमारा स्त्री विरोधी मानसिकता के पूर्वाग्रह से ग्रसित ब्राह्मणवादी पितृसत्तात्मक समाज उसके प्रति किस कदर असंवेदनशील हो सकता है यह दोहरा अभिशाप में बखूबी देखा जा सकता है। कुल मिलाकर कहा जाए तो लेखिका कौशल्या बैसंत्री का आत्मवृत दोहरा अभिशाप दलित जीवन के खंड-खंड बनते, बिगडते, सँवरते, ऊँचाई पाते जीवन की यथार्थ के ताने-बाने से बुनी सुंदर सहज और अनुपम महागाथा है।

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