कविताएं


सुनो भीम ........

1) 

कितनी अजीब बात है
जब हम सोचने लगते है
सिद्धांत केवल कहने की बात है
चलने की नही
हम सत्य न्याय समता
लिख देना चाहते है किताबों में
होता है वह हमारे
भाषण का प्रिय विषय
पर उसे नही अपनाना
चाहते जीवन में
हम बार-बार कसम
खाते है अपने आदर्शों की
देते है दुहाई उनकी
भीड देख जोश
उमड़ आता है हमारा
जय भीम के नारों से
आंख भर आती है हमारी
गला अबरुद्ध हो जाता है
फफक कर रो उठते है हम
दुख तकलीफ उसकी याद कर
जो झेली थी भीम ने उस समय
पर हम आंख मींच लेते
उससे जो अन्याय हमारी आंखों
नीचे घट रहा है


2)

सुनो मैने तुमसे कहा
ये भीमराव बाबा है
तुमने कहा हां ये हमारे भीम बाबा है
और झट उतारने लगे उनकी आरती
तुमने खूब पहनाएं उन्हे हार
और खूब चढाई धूप बत्तियां
जबकि तुम्हारे पास खडा था
उम्मीद से घिरा एक बच्चा
और दूर से दिखता एक स्कूल
जिसमें चली जा रही थीं
बच्चों पर बच्चों की कतारें
वह भी उसके पास जाना चाहता था
उसमें बैठना चाहता था
क्या यह तुम्हारे लिए सचमुच ही
नामुमकिन था कि वह जा पाए स्कूल
औरों की तरह
पर छोडो...

तुम ले आए थे बाबा को बाजार में
लगा रहे थे बोली
कह रहे थे देखो- देखो
हमारे बाबा ने झेली थी
दुख तकलीफें
जो तुमने दी थी उन्हें
अब तुम्हें भरना पडेगा उन सबका हर्जाना
उनकी तकलीफों के पहाड़
बदल रहे थे तुम्हारी
देश- विदेश यात्राओं की टिकटों में
कर रहे थे तुम विदेश यात्राएं
बोल रहे थे सभा-सम्मेलनों में
धिक्कार रहे थे उन्हें
जो सदियों से कर रहे थे अत्याचार
पर तुम्हारे पास एक अत्याचार ग्रस्त
औरत खडी थी
लेकिन तुम्हारी आँखे उसकी पीड़ा से दूर
आसमान पर टिकी थी
जो तुम्हे अभी मिलना बाकी था

अब तुम बाबा को
घसीट लाए हो
व्यापार में

लोगों को बाबा के अपनाने के
लाभ-हानि सीखा रहे हो
सीखा रहे हो उनको
सूद की तरह लाभ बटोरना
जबकि तुम्हारे पास तुम्हारे
भाई-बहन भूख से बिलख रहे है


हासिल है तुम्हे बिजनेस यात्राएं
अपने उन्ही भूखे भाई- बहनों के बूते

बाबा के तमाम उपलब्धी भरे चित्र
गले में, हाथ में, लाकेट में
गले पर लटकाएं या फिर
कीमती बक्से में सहेज कर धरे
ठीक एक स्वर्णकार की तरह
जो तुम्हारी ही तरह सिद्धांतहीन लोगों को
चाहिए तुम्हारी ही तरह पहनने के लिए


3)

देखो!
मुझमें बसता है एक अम्बेडकर
देखो !
तुममें बसता है एक अम्बेडकर
जो हमारी
नसों में दौडते नीले खून की तरह
ह्रदय तक चलता हुआ
हमारे मस्तिष्क में समा जाता है
अरे साथी
निराश ना हो
हमें पता है
जो यहां घुला है
वही उठेगा
इस मिट्टी से एक दिन
फिर दुबारा
अपनी प्रतिमा गढते हुए
नया भीमराव
_______________________________________________________________________ 

4)

बाबा तुम रो रहे हो
राजनीति की कुचालों में
तुम्हारी दलित जनता
धक्का खाकर कुचली
भीड सी चीत्कार रही है

तुम सोच में हो
कुचली भीड सी जनता
अपना आकार ले रही है
उसके सोए भाव जाग रहे है
वह संगठित हो रही है

तुम हँस रहे हो
दबी कुचली जनता
मिट्टी से उठना सीख गई है
फूल खिल रहे है चारों ओर
उठो! यह भोर का आगाज है
हाँ तुम हँस रहे हो बाबा

_______________________________________________________________________

5)

प्रिय मित्र
क्रांतिकारी जयभीम
जब तुम उदास होते हो
तो सारी सृष्टि में उदासी भर जाती है
थके आंदोलन सी आँखे
नारे लगाने की विवशता
जोर-जोर से गीत गाने की रिवायत
नही तोड़ पाती तुम्हारी खामोशी

मुझे याद है
1925 का वह दिन
जब तुम्हारे चेहरे पर
अनोखी रौनक थी
संघर्ष से चमकता तुम्हारा
वो दिव्य रुप
सोने चांदी से मृदभांड
उतर पडे थे तालाब में यकायक
आसमान ताली बजा रहा था
सितारे फूल बरसा रहे थे
यूं तो मटके पकते है आग में
पर उस दिन पके थे चावदार तालाब में
आई थी एक क्रांति
तुम्हारी बहनें उतार रही थी
हाथों पैरों और गले से
गुलामी के निशान
और तुम दहाड रहे थे
जैसे कोई बरसों से सोया शेर
क्रूर शिकारी को देखकर दहाडे
मुझे याद है आज भी वो दिन
जब चारों तरफ जोश था
और उधऱ
एक जानवराना क्रोध था

तुम बढ रहे थे क्रांतिधर्मा
सैकडो क्रांतिधर्माओं के साथ
उस ईश्वर के द्वार
जिसे कहा जाता है सर्वव्यापी
पर था एक मंदिर में छुपा
उन्होने रोका,बरसाये डंडे
पर तुम कब रुके ?
तुम आग उगल रहे थे
उस आग में जल रहे थे
पुरातन पंथी क्रूर ईश्वरीकृत कानून
हम गढेगे अपना इतिहास
की थी उस दिन घोषणा तुमने
दौड गई थी शिराओं में बिजली
उस दिन,
जो अभी तक दौड रही है
हमारी नसों में, हमारे दिमाग में
और हमारे विचार में



6)

भूख प्यास और दु:ख में
सर्दीगर्मीबरसात में
जमीन परकुर्सी पर
तुमने जी भर ओढ़ाबिछायालपेटा
अम्बेडकरी चादर को
फिर तह कर चादर
रख दी तिलक पर
और तिलक धारियों के साथ सुर मिलाया
हे रामवाह राम!
तुमने छाती से लगाई तलवार
और तराजू बन गया तुम्हारा ताज
पर जूता !
जूता तो पैरो में ही रहा
समझोते की जमींन पर चलते-चलते
कराह उठाचरमरा उठा
हो गए है उसकी तली में
अनगिनत छेद
उन छेदों से छाले
पैरो में नहीं
छाती पर जख्म बनाते है
और लहुलुहान पैर नही
जूतों की जमातें है

----------------------------------------------------------

मुजफ्फनगर से लौटने के बाद...

रुखसाना का घर..

1.

सोचती हूँ मैं
क्या तुम्हें कभी भूल पाउंगी रुखसाना
तुम्हारी आँखों की गहराई में झांकते सवाल
तुम्हारे निर्दोष गाल पर आकर ठहरा
आंसू का एक टुकड़ा
बात करते-करते अचानक
कुछ याद कर भय से काँपता तुम्हारा शरीर
तुम्हारे बच्चें जिनसे स्कूल
अब उतनी ही दूर है
जितना पृथ्वी से मंगल ग्रह
किताबें जो बस्ते में सहेजते थे बच्चे
अब दुनिया भर की गर्द खा रही है
या यूं कहूं रुखसाना किताबें
अपने पढ़े जाने की सज़ा खा रही है
तुम्हारी बेटी के नन्हें हाथों से
उत्तर कापियों पर लिखे
एक छोटे से सवाल
धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र की विशेषताएं पर
अपना अर्थ तलाश रहे है

2.

रुखसाना
सामने कपड़े सिलने की
मशीन पड़ी है
ना जाने कितनी
जोड़ी सलवार कमीज
ब्लाऊज पेटीकोट
फ्राक बुशर्ट झबले
सिले है तुमने
तुम्हारे दरवाजे ना जाने कितनी बार
आई होगीं गांव भर की औरतें
यहां तक की चौधरी की बहु भी
तुम्हारे सिले कपड़े पहन
इतरा कर तारीफ करते हुए
किसी आशिक की तरह
तुम्हारे हाथ चुमकर डॉयलोग मारते हुए
मेरी जान क्या कपडें सिलती हो
पर अब धुआं-धुआं पलों को बटोर
कहती है निराश रुखसाना
शरणार्थी कैम्प के टैंट में पडी- पडी
मैं भी इस सिलाई मशीन की तरह ही हूँ
जंग खाई निर्जीव
मेरे जीवन का धागा टूट गया है
बाबीन है कि अपनी जगह फंस गई है
रुखसाना याद आती है मुझे रहीम की पंक्तियां
पर तुमसे कैसे कहूँ
रहिमन धागा प्रेम का मत तोड़ो चटकाएं

3

रुखसाना
तेज आवाज के साथ
रात भर बरसा पानी
शरणार्थी कैंप के टैंट में सोते
बच्चों की कमर उस
निर्लज्ज पानी में डूब गई
सब रात में ही अचकचा कर उठ बैठे
बच्चों के पास अब कल के लिए सूखे कपड़े नही है
रुखसाना
तुम्हारी आँखों के बहते पानी ने
कई आंखों के पानी मरने की कलई खोल दी है.

4

पिछले पंद्रह दिन दिन से
हमारे पास खाने के लिए कुछ नही है
कहती है रुखसाना
दिल-दिमाग में चल रहे झंझावात से
लड़कर निष्कर्ष निकालती है रुखसाना
दंगे होते नही करवाएं जाते है
हम जैसों का वजूद रौंदने के लिए
जो रात-दिन पेट की आग में खटते हुए
अपने होने के अहसास की लड़ाई लड़ रहे है

5

ओ मुजफ्फर नगर की
लोहारिन वधु
जब तुम आग तपा रही थी भट्टी में
उस भट्टी में गढ़ रही थी औजार
हंसिया, दाव और बल्लम
तब क्या तुम जानती थी
कि ये सब एक दिन
तुम्हारे वजूद को खत्म करने के काम आयेगे
कुछ दिन पहले तुम खुश थी चहक रही थी
अम्मी आजकल हमारा काम धंधा जोरो पर है
भट्टी रात दिन जलती है
इस ईदी पर हम दोनों जरुर आयेगे
तुमसे मिलने और ईदी लेने
पर क्या तुम उस समय जानती थी
यह औजार किसानों के लिए नही
ये हथियार दंगों की फसल
काटने के लिए बनवाएं जा रहे है
कितनी भोली थी तुम्हारी
ये ईदी लेने की छोटी सी इच्छा

6

दंगे सिर्फ घर-बार ही नही उजाड़ते
दंगे सिर्फ काम-धंधा ही नही उजाड़ते
दंगे सिर्फ प्यार-स्नेह ही नही तोड़ते
दंगे सिर्फ जान-असबाब ही नही छीनते
दंगों की धार पर चढ़ती है औरतों-बच्चियों की अस्मिताएं
अगर ऐसा ना होता तो
बताओं क्यों
वे निरीह असहाय मादा के सामने
पूरे नंगे हो इशारे से दिखाते है अपना ऐठा हुआ लिंग


7


रोती हुई रुखसाना कहती है
अब हमारा कौन है
जब हमारे अपने बड़ो ने
ही हमें गांव-घर से खदेड दिया
चार पीढी से पहले से रहते आए है हम यहां
इन सारी पीढियों के विश्वासघात की कीमत क्या होगी
क्या उसको चुकाना मुमकिन है
कितनी कीमत लगाओगे बताओ
प्यार से खाए गए एक नमक के कण का कर्ज
चुकाने में चुक जाते है युग
तब कैसे चुकाओगे तुम
चार-चार पीढियों के भरोसे विश्वास के कत्ल का कर्ज


8

रखसाना कहती है
नहीं जानती साईबेरिया  कहां है
नही जानती साईबेरिया में कितनी ठंड पड़ती है
नहीं जानती साईबेरिया के बच्चे क्या पहनते है
नही जानती साईबेरिया के औरतें कैसे रहती है
नहीं जानती साईबेरिया के लोग क्या खाते-पीते है
नहीं जानती कि वहां बीमार बच्चों को देखने डॉक्टर आता है नहीं
नहीं जानती कि वहां मरे बच्चों का हिसाब कैसे चुकाया जाता है
पर रुखसाना जानती है
साईबेरिया की ठंड में कोई खुले आसमान के नीचे नही सोता

9

रुखसाना
गहरे अवसाद में है
जान बचाकर भागते वक्त
घर में छूट गई  
नन्ही बछिया चुनमुन
लड़ाकू मुर्गा रज्जू
घर के बच्चों की लाड़ली
सुनहरे बाल वाली सोनी बकरी
सब  गायब है
रुखसाना को पता चला है
कटने से पहले
रज्जू ने बहुत हाथ पैर मारे थे
बाकी चुनमुन और सोनी
कहां है कौन ले गया
कोई नही बताता

10.

रुखसाना
सोचती है
कौन हूं मैं
क्या हूं मैं
औरत मर्द या इंसान
मेरे नाम के साथ या पीछे
क्या जोड़ा जाना चाहिए
चुन्नु की अम्मा
मेहताब की जनाना
सलामुद्दीन की बेटी या
सरफराज की बाजी
जब मैं भाग रही थी
तब मैं कौन थी
चुन्नु की अम्मा
मेहताब की जनाना
सलामुद्दीन की बेटी या
सरफराज की बाजी
रुखसाना सोचती है
इन सब से परे
वह बेजान माँस की बनी एक जनाना है बस



अनिता भारती
ए.डी 118 बी शालीमार बाग दिल्ली-110088
ईमेल- anita.bharti@gmail.com
फोन नंबर- 9899700767



--------------------------------------------------------------------
बार बार हम इकट्ठे होते है
बार-बार हम बहस करते है
बार-बार हम मंथन करते है
पर हर बार हम 
परेशान हो जाते है, हताश हो जाते है, बोर हो जाते है।
और फिर अपने अपने घर में
हाथ पर हाथ धर बैठे जाते है
थोडे दिन बाद हम फिर
अपनी ताकत बटोरते है, अपने को समेटते है
सबको जोर की आवाज लगा इकट्ठा करते है
आने वाले संघर्षों से, कडवे दिनों से खिलाफ
लडने का जज्बा पैदा करते है, योजनाएं बनाते है
और आखिकार उम्मीद की एक सीढी चढ ही जाते है
नही भूलना चाहते हम कि
एक-एक सीढी से ही आसमान का रास्ता दिखता है.

अनिता भारती
18 जून 2014
10.41

-----------------------------------------------------------------------


Prashant Wanjare जी द्वारा मेरी हिन्दी से मराठी में अनूदित कविता। बहुत बहुत शुक्रिया प्रशांत जी.
माती

तुम्ही सतत हेच
करत आला आहात
स्वत:च्या हक्कांना भोगत
आणि
इतरांच्या हक्कांना प्रतिबंध
करत आला आहात

चालू नये आम्ही हमरस्त्यावर
घालू नये सुंदर कपडे
घेऊ नये शिक्षण
राहावे घान कोठारात

आमची मुलं आमचे तलाव
आमच्या विहिरी
कधी तुम्हाला सहनच झाल्या नाहीत
आम्ही फक्त
तुमच्या डोळ्यातला कचरा
आम्ही फक्त
तुमच्या डोळ्यातली माती

पण लक्षात ठेवा
हि माती
जेव्हा आकार घेते
तेव्हा जन्म देते स्वप्नांना
निर्माण करते घरकुलांना
देते संदेश समता आणि
बंधुतेचा
जन्म घेते नवसृजन
आणि अंकुरतात झाडे

माती जेव्हा हुंकार भरते
तेव्हा उडून जातात मिनार
उध्वस्त होतात राजमहाल
माती बोलत नसली तरी
अमर्याद आहे मातीची ताकद .
००
मुल हिंदी कविता - अनिता भारती
------------------------------------------------------------------------------










Share |