गुरुवार, 10 जुलाई 2014

रात नही दिन के भरपूर उजाले में
जीत के नगाडे बज रहे है
संवेदनाओं के ज्वार फूट रहे है
सहानुभूति की लहरें उछाल मार रही है
जश्न मना रहे है उनका
जो अपराधी है
घूसखोर है
बलात्कारी है
अत्याचारी है
निरंकुश है
बेहया है
चालाक है
काईंया है
अब अपराधी/ घूसखोर/ बलात्कारी/
अत्याचारी/ निरंकुश/ बेहया/ चालाक/ काईंयां
छिपकर नही बल्कि बस्तियां बनाकर रहते है
आसमान के चांद पर शान से खाट बिछाकर सोते है

अनिता भारती
10.7.13

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